बृहत्त पराशर होरा शास्त्र के अनुसार जन्मकुंडली में 14 प्रकार के शापित योग हो सकते हैं। इनमें पितृ दोष, मातृ दोष, भ्रातृ दोष, मातुल दोष, प्रेत दोष आदि को प्रमुख माना गया है। इन दोषों के कारण व्यक्ति को स्वास्थ्य हानि, आर्थिक संकट, व्यवसाय में रुकावट, संतान संबंधी समस्या आदि का सामना करना पड़ सकता है।  पितृ दोष प्रत्येक कुंडली में अलग-अलग तरह के नुकसान कर सकता है। इनका  पता कुंडली के गहन अध्ययन के बाद ही चलता है। पितृ दोष के निवारण और उपचार के लिए कुंडली में सबसे पहले यह पता लगाना होता है कि इन ग्रहों के कारण यह दोष बन रहा है। कुंडली में यह कितना प्रबल है या कितना कमजोर। उन ग्रहों के पहचान करके उससे संबंधित उपाय करने से पितृ दोष के बुरे प्रभावों को कम किया जा सकता है। कुंडली में मुख्यत तीन ग्रहों के चलते पितृदोष बनता है, ये ग्रह हैं-सूर्य, मंगल और गुरु। जब ये तीनों ग्रह भाव विशेष में पाप ग्रहों के साथ होते, उनके मध्य होते हैं, या उनके द्वारा देखे जाते हैं, कुंडली में पितृदोष बनता है। पाप ग्रह से मतलब राहु, केतु और शनि से हैं। हालांकि सूर्य और मंगल भी पाप और क्रूर ग्रह माने गए हैं लेकिन दोनों मित्र ग्रह होने के चलते इनका पापत्व खत्म हो जाता है। इसे  राहू , सूर्य , मंगल और बृहस्तपति की विभिन्न भावों में स्थिति से कुंडली में पितृदोष के प्रभाव का पता लगाया जा सकता है। कुंडली में सूर्य से पुरुष, चन्द्रमा से स्त्री या माता, मंगल से भाई, गुरु से बड़े परिजनों  और शुक्र से पत्नी संबंधित पितृ दोषों के असर पहचाना जाता है।

ग्रहों के अनुसार बना पितृ दोष 
सूर्य के कारण 
यदि सूर्य पाप ग्रह से युक्त हो या पाप कर्तरी योग में हो अर्थात पाप ग्रह के मध्य हो अथवा सूर्य से सप्तम भाव में पाप ग्रह हो तो उसका पिता असामयिक मृत्यु प्राप्त करता है। यह एक पितृ दोष का कारण हैं। सूर्य के लिए पाप ग्रह केवल शनि, राहु और केतु हैं, इसलिये सूर्य के साथ शनि, राहु और केतु हो तो पितृ दोष लगता है या पितृ ऋण चढ़ जाता है। यही पितृ दोष की पहचान भी है।

सूर्यश्च पाप मध्यगत : सूर्य, यदि शनि, राहु और केतु के बीच में हो अर्थात् पूर्व ओर राहु, केतु, शनि हो। इससे पितृ दोष आ जाता है। 

सूर्य सप्तगत पाप : सूर्य से सप्तम स्थान पर पाप ग्रह हो अर्थात् सूर्य पाप ग्रह से दृष्ट हो तो पितृ दोष आ जाता है। क्योंकि सभी ग्रह (यानि राहु, केतु, शनि) अपने से सप्तम भाव या दृष्टि से देखते हैं। शनि की सप्तम के अलावा अन्य और दो दृष्टि -तृतीय एवं दशम होती है। अत: सूर्य से चतुर्थ, सप्तम और एकादश स्थान पर शनि के रहने से पितृ दोष लगता है, जिससे जातक के ऊपर पितृ ऋण चढ़ जाता है। राहु, केतु की दृष्टि प्राचीन ग्रंथों में नहीं है लेकिन अर्वाचीन ग्रंथों ने माना है कि राहु, केतु ग्रह पंचम एवं नवम भाव को देखते हैं, क्योंकि ये दोनों दृष्टियां होती हैं ये माना जाता है। इनका फल भी घटता जाता है। अत: सूर्य से पंचम और नवम स्थान में राहु, के रहने पर पितृ दोष लगता है। 

सूर्य के कारण पितृ दोष लगने का कारण

चूंकि सूर्य, आत्मा एवं पिता का कारक है अत: पूर्व जन्म में अपने पिता (अर्थात् पितृ/पूर्वज) को किसी भी तरह से संतुष्ट नहीं करने के कारण यह दोष चढ़ता है। सूर्य के कारण पितृ दोष लगने के निम्न कारण हो सकते हैं। पिता की हत्या कर देना। अपने कार्य से पिता को संतुष्ट और खुश न रखना। पिता की अच्छी तरह से सेवा न करना। विपरीत प्रतिष्ठा के कारण पिता की प्रतिष्ठा, मान-सम्मान में कमी करना। वह पाप/अपराध, जिसका प्रायश्चित बड़ी मुश्किल से हो या न हो आदि।  उपरोक्त कार्यों से मनुष्य पर पितृ ऋण का दोष आ जाता है। चूंकि जन्मकुंडली, मनुष्य के प्रारब्ध का दर्पण है अत: यह कुंडली देखने से जब सूर्य ग्रह, पाप ग्रहों से युक्त होता है तो यह समझा जाता है कि मनुष्य पूर्व जन्म के पितृ दोष से मुक्त नहीं हो पाया है। 

मंगल के कारण पितृ दोष 

चूंकि मंगल का संबंध रक्त संबंध से होता है  और रक्त संबंध के अंतर्गत पूर्वज, पिता आदि सारे संबंध आ जाते हैं, इसलिए मंगल के कारण भी पितृ दोष बनता है।  यदि हमारे पूर्वजों ने कुछ गलत कर्म किये हैं तो उनका परिणाम स्वयं को इस जन्म में या अगले जन्म में अथवा पीढ़ी दर-पीढ़ी किसी न किसी को भोगना पड़ता है। जो पितृ दोष के रूप में उभर कर सामने आता है। चूंकि मंगल रक्त का कारक होता है, अत: इस पर राहु, केतु का पाप प्रभाव होने पर पितृ दोष के रूप में उभर कर सामने आता है। यह मंगल शरीर में खून की कमी कर अपना प्रभाव जातक को निम्न रक्तचाप के रूप में देता है, जिससे शरीर में ऊर्जा, कामशक्ति और संतान पैदा करने की शक्ति की कमी करता है। 

कैसे बनता है 

राहु और केतु के साथ जब मंगल ग्रह आ जाता हैं तो पितृ दोष का निर्माण होता है। इसके साथ ही ये दोनों ही ग्रह कालसर्प योग की भी रचना करते हैं। इसके कारण जातक की वंश वृद्धि रुक जाती है। मंगल के कारण उपरोक्त अशुभफल मुख्य हैं, क्योंकि मंगल रक्त का कारक ग्रह है। इसके अलावा अन्य अशुभ परिणाम भी देखने को मिलते हैं। जैसे-अकाल मृत्यु होना, बलहीन हो जाना आदि है। इस स्थिति में मृत आत्मा तब तक भटकती रहती है जब तक कि उसकी वास्तविक आयु पूरी नहीं हो जाए। इसके अलावा कई आत्माएं भूत, प्रेत, नाग, डायन (भूतनी, प्रेतनी) आदि बनकर पृथ्वी पर विचरती (भटकती) रहती है। ये सभी राहु, केतु के ही रूप हैं, जिन्हें ऊपरी बाधा या हवा कहते हैं। इसके अलावा और भी कई धार्मिक आत्मायें रहती हैं वे किसी को भी परेशानी नहीं देती बल्कि दूसरों का सदा भला करती हैं। यह स्थिति हमारे पूर्वजों पर भी समान रूप से लागू होती है। हमारे पूर्वज, मृत अवस्था में जो रूप धारण करते हैं, वे पितृ दोष के कारण तड़पते रहते हैं और आकाश में विचरण करते रहते हैं। उन्हें खाने, पीने को कुछ भी मिलता है। उनकी आत्माएं  चाहती है, उनके रक्त संबंध जैसे- पुत्र, पौत्र या पौत्री, पुत्री, पत्नी आदि। उस आत्मा का उद्धार करें । यह उद्धार श्राद्ध कर्म करके किया जा सकता है। यदि रक्त संबंधी श्राद्ध नहीं करते हैं् तो ये आत्माएं उनके जीवन में घोर संकट के रूप में सामने आती हैं, जो कि पितृ दोष का कारण बन जाती हैं। परिवार में एक या अधिक को पितृ दोष हो सकता है। जो इस आत्मा के ज्यादा निकट होता है वह उसका पात्र बनता है। 

गुरु से बना पितृ दोष 

ज्योतिष में पितृ दोष का संबंध बृहस्पति (गुरु) से भी बताया गया है। अगर गुरु ग्रह पर दो बुरे ग्रहों का असर हो और गुरु 4-8-12वें भाव में हो या नीच राशि में हो तथा अंशों द्वारा निर्धन हो तो यह दोष पूर्ण रूप से घटता है और यह पितृ दोष पिछले पूर्वज (बाप दादा परदादा) से चला आता है, जो सात पीढ़ियों तक चलता रहता है। इसके दुष्परिणाम देखे गए हैं- जैसे कई असाध्य व मंभीर प्रकार की बीमारियां जैसे दमा, शुगर इत्यादि जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं। इस दोष का प्रभाव घर की स्त्रियों पर भी अधिक रहता है। 

कुंडली में भाव के अनुसार बना पितृदोष 

कुंडली में दशम भाव को पिता का भाव या पितृ भाव कहा जाता है। ज्योतिष के अनुसार किसी भी भाव से बारहवां भाव मोक्ष का भाव होता है। सूर्य इस सृष्टि के पिता है, इस दृष्टि है दशम भाव सूर्य का नैसर्गिक स्थान है। नवम भाव पितृ मोक्ष स्थान कहलाता है। अष्टम भाव पितृ लाभ स्थान कहलाता है। ज्योतिष के अनुसार कुंडली का पंचम स्थान पूर्व पुण्य जन्म स्थान कहलाता है, इसलिए कुंडली के पांचवा भाव पितृगण के पितृगण का लाभ स्थान है, इसी कारण पंचम स्थान को पूर्व पुण्यप्रद पितृ स्थान कहा गया है। कुंडली में बनने वाला पितृदोष पंचम, अष्टम, नवम तथा दशम स्थान में बैठे क्रूर ग्रह से निर्मित होता है या फिर पंचमेश, अष्टमेश, भाग्येश या दशमेश की किसी क्रूर ग्रह के साथ युति द्वारा निर्मित होता है।

शनि के कारण बना पितृदोषप्राकृतिक रूप से जन्मकुंडली के दशम भाव का स्वामी शनि होता है। दशम भाव को पिता का भाव कहलाता है। जब कभी भी कुंडली में सूर्य और शनि की युति अगर पंचम, अष्टम नवम अथवा दशम स्थान में होती है तो पितृदोष का निर्माण होता है। इसे पिता की पुत्र से दुश्मनी भी माना गया है। दूसरी स्थिति में अगर जातक की कुंडली में पंचम, अष्टम नवम अथवा दशम स्थान में अगर शनि और राहू की युति होती है तो पितृदोष का निर्माण होता है।

कुंडली में कैसे बनता है पितृ दोष 

– सूर्य या चंद्रमा के साथ राहु कुंडली में विराजमान होने से ग्रहण योग कहलाता है। इसे भी पितृ दोष माना गया है। इसके प्रभाव से नाना प्रकार की आपत्तियां जातक को घेरे रहती हैं।

– तुला राशिस्थ, नीच के सूर्य और उच्च के शनि की जन्मकालीन युति वाली स्थिति विपत्तिकारक पितृ परिलक्षित करती है।

– जन्मकुंडली के पहले, दूसरे और बारहवें भाव (1, 2 एवं 12) में राहु की स्थिति पितृदोष का निर्माण करती है। 

– किसी की जन्मकुंडली में गुरू और राहु की चांडाल योग वाली युति होने के जातक पितृ ऋण से ग्रसित होता है। 

– कुंडली के पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, नौवें या दसवें भाव में यदि सूर्य-राहु या सूर्य-शनि एक साथ स्थित हों तब पितृ दोष माना जाता है।  इन भावों में से जिस भी भाव में यह योग बनेगा, उसी भाव से संबंधित फलों में व्यक्ति को कष्ट या संबंधित सुख में कमी हो सकती है

– सूर्य यदि नीच का होकर राहु या शनि के साथ है तब पितृ दोष के अशुभ फलों में और अधिक वृद्धि होती है 

– जन्म कुंडली में दशम भाव का स्वामी छठे, आठवें अथवा बारहवें भाव में हो और इसका राहु के साथ दृष्ठि संबंध या युति हो रही हो तब भी पितृ दोष का योग बनता है.   

–  किसी जातक की कुंडली में लग्नेश यदि छठे, आठवें या बारहवें भाव में स्थित है  और राहु लग्न में है तब भी पितृ दोष होता है

– जो ग्रह पितृ दोष बना रहे हैं यदि उन पर छठे, आठवें या बारहवें भाव के स्वामी की दृष्टि या युति हो जाती है, तब इस प्रभाव से व्यक्ति को वाहन दुर्घटना, चोट, ज्वर, नेत्र रोग, ऊपरी बाधा, तरक्की में रुकावट, बनते कामों में बाधा, अपयश, धन हानि आदि अनिष्ट फलों के मिलने की आशंका बनती है। 

– यदि जन्म कुंडली में आठवें या बारहवें भाव में गुरु व राहु का योग बन रहा हो और पंचम भाव में सूर्य-शनि या मंगल आदि क्रूर ग्रहों की स्थिति हो तब पितृ दोष के कारण संतान कष्ट या संतान से सुख में कमी रहती है

–  बारहवें भाव का स्वामी लग्न में स्थित हो, अष्टम भाव का स्वामी पंचम भाव में हो और दशम भाव का स्वामी अष्टम भाव में हो तब यह भी पितृ दोष की कुंडली बनती है और इस दोष के कारण धन हानि या संतान के कारण कष्ट होता है 

–  लग्न और पंचम भाव में सूर्य , मंगल और शनि स्थित हो और अष्टम या द्वादश भाव में गुरु राहु से युति कर स्थित हो पितृदोष के चलते संतान नहीं होती।

– सूर्य को पिता का एवं वृह. को पितरो का कारक माना जाता है। जब ये दोनो ग्रह निर्बल होकर शनि, राहु, केतु के पाप प्रभाव में हो तो पितृदोष होता है।

– अष्टम या द्वादश भाव में कोई ग्रह निर्बल होकर उपस्थित हो तो पितृदोष होता है।

– वृश्चिक लग्न या वृश्चिक राशि में जन्म भी एक कारण होता है, क्योंकि वह राशि चक्र के अष्टम स्थान से संबंधित है

–  सूर्य, चंद्र एवं लग्नेश का राहु केतु से संबंध होने पर पितृदोष होता है।- जन्मांग चक्र में सूर्य शनि की राशि में हो और गुरु वक्री होकर स्थित हो तो पितृदोष होता है। 

– राहु एवं केतु का संबंध पंचम भाव-भावेश से हो तो पितृदोष से संतान नही होती है।

– अष्टमेश और द्वादशेश का संबंध सूर्य और गुरु से हो तो पितृदोष होता है।
– लग्नेश की अष्टम स्थान में स्थिति अथवा अष्टमेष की लग्न में स्थिति से भी यह दोष बनता है। 

– पंचमेश की अष्टम में स्थिति या अष्टमेश की पंचम में स्थिति।

– नवमेश की अष्टम में स्थिति या अष्टमेश की नवम में स्थिति।

– तृतीयेश, यतुर्थेश या दशमेश की उपरोक्त स्थितियां। तृतीयेश व अष्टमेश का संबंध होने पर छोटे भाई बहनों, चतुर्थ के संबंध से माता, एकादश के संबंध से बड़े भाई, दशमेश के संबंध से पिता के कारण पितृ दोष की उत्पत्ति होती है। 

– सूर्य मंगल व शनि पांचवे भाव में स्थित हो या गुरु-राहु बारहवें भाव में स्थित हो।

– राहु केतु की पंचम, नवम अथवा दशम भाव में स्थिति या इनसे संबंधित होना।

– राहु या केतु की सूर्य से युति या दृष्टि संबंध से भी पितृदोष बनता है। (पिता के परिवार की ओर से दोष)।

– राहु या केतु का चन्द्रमा के साथ युति या दृष्टि द्वारा संबंध (माता की ओर से दोष)। चंद्र राहु पुत्र की आयु के लिए हानिकारक।

– राहु या केतु की बृहस्पति के साथ युति अथवा दृष्टि संबंध (दादा अथवा गुरु की ओर से दोष)।

– मंगल के साथ राहु या केतु की युति या दृष्टि संबंध (भाई की ओर से दोष)।

– वृश्चिक लग्न या वृश्चिक राशि में जन्म भी एक कारण होता है, क्योंकि वह राशि चक्र के अष्टम स्थान से संबंधित है।

– शनि-राहु चतुर्थी या पंचम भाव में हो तो मातृ दोष होता है। मंगल राहु चतुर्थ स्थान में हो तो मामा का दोष होता है।

– यदि राहु शुक्र की युति हो तो जातक ब्राहमण का अपमान करने से पीड़ित होता है। मोटे तौर पर राहु सूर्य पिता का दोष, राहु चंद्र माता दोष, राहु बृहस्पति दादा का दोष, राहु-शनि सर्प और संतान का दोष होता है।

– इन दोषों के निराकारण के लिए सर्वप्रथम जन्मकुंडली का उचित तरीके से विश्लेषण करें और यह ज्ञात करने की चेष्टा करें कि यह दोष किस किस ग्रह से बन रहा है। उसी दोष के अनुरूप उपाय करने से आपके कष्ट समाप्त हो जायेंगे।

उपाय 
यदि आपकी कुंडली में पितृदोष है तो उससे घबराने की जरूरत नहीं है। बस आपको अपने रुठे हुए पितरों को मनाने के लिए कुछ उपाय करने होंगे। लेकिन यह जरूर याद रखिए कि उपाय आप चाहे जो कर लें, लेकिन यह दोष पूरी तरह से समाप्त नहीं होता, हां, इसका नकारात्मक प्रभाव काफी हद तक कम हो जाता है। जो पितृ रुठे हुए होते हैं, उनकी सेवा करने से वह खुश हो जाते हैं और अपना आशीर्वाद आपके परिवार पर बरसाने लगते हैं। उनका आशीष और प्यार मिलते ही घर के बिगड़ने काम बनने लगते हैं और घर में बरकत आने लगती है। आप भी यह उपाय अपनाकर अपने दुख दूर कर सकते हैं।

 
प्रतिदिन के उपाय 
– हर रोज आधे घंटे के लिए खिड़की जरूर खोलें, इससे कमरे से नकारात्मक उर्जा बाहर निकल जाएगी और साथ ही सूरज की रोशनी के साथ घर में सकारात्मक उर्जा का प्रवेश हो जाएगा।

-घर में अधिक कबाड़ एकत्रित ना होने दें। शाम के समय एक बार पूरे घर की लाइट जरूर जलाएं। सुबह-शाम सामूहिक आरती करें।

– गाय की सेवा कीजिये। चिड़ियों को बाजरे के दाने डालिए। कौवों को रोटी डालिए। 

– प्रतिनिद  तुलसी जी की सेवा कीजिए 

– पीपल के वृक्ष पर मध्यान्ह में जल, पुष्प, अक्षत, दूध, गंगाजल, काले तिल चढ़ाएं। संध्या समय में दीप जलाएं। 

– नाग स्तोत्र, महामृत्युंजय मंत्र या रुद्र सूक्त या पितृ स्तोत्र व नवग्रह स्तोत्र का पाठ करें। ब्राह्मण को भोजन कराएं। 

– सुन्दर कांड , गीता और आदित्य हृदय स्रोत का पाठ भी पितृ दोष में शांति देता है

–  सरसों के तेल का दीपक जलाकर, प्रतिदिन सर्पसूक्त एवं नवनाग स्तोत्र का पाठ करें। 

– अपने घर की दक्षिण दिशा की दीवार पर अपने दिवंगत पूर्वजों का फोटो लगाकर उस पर हार चढ़ाकर उन्हें सम्मानित करना चाहिए। 

–  घर एवं कार्यालय, दुकान पर मोर पंख लगावें। ताजी मूली का दान करें। कोयले, बहते जल में प्रवाहित करें। 

-घर में हमेशा चन्दन और कपूर की खुशबु का प्रयोग करें।

-मुख्य दरवाजे में दहलीज लगाने से अनेक अनिष्टकारी शक्तियाँ प्रवेश नहीं कर पातीं व दूर रहती हैं। प्रतिदिन सुबह मुख्य द्वार के सामने हल्दी, कुमकुम व गोमूत्र मिश्रित गोबर से स्वास्तिक बनाएं। आधुनिक वातावरण में संभव न हो तो गौमूत्र से बनी फिनाइल का उपयोग भी उपयुक्ति फल देता है।

-प्रवेश द्वार के ऊपर बाहर की ओर गणपति अथवा हनुमानजी का चित्र लगाना एवं आम, अशोक आदि के पत्ते का तोरण (बंदनवार) बाँधना भी मँगलकारी है।-जिस घर, इमारत, प्लाट आदि के मध्यभाग (ब्रह्मस्थान) में कुआँ या गड्ढा रहता है वहाँ रहने वालों की प्रगति में रुकावट आती है एवं अनेक प्रकार के दु:ख एवं कष्टों का सामान करना पड़ता है। अन्त में मुखिया का व कुटुम्ब का नाश ही होता है।।

– यदि पीने के पानी का स्थान उत्तर या उत्तर-पूर्व में भी है तो भी उसे उचित माना गया है और उस पर भी पितृ के निमित्त दीपक लगाने से पितृदोष का नाश होता है क्योंकि पानी में पितृ का वास माना गया है और पीने के पानी के स्थान पर उनके नाम का दीपक लगाने से पितृदोष की शांति होती है ऐसी मान्यता है

– जिन व्यक्तियों के माता-पिता जीवित हैं, उनका आदर-सत्कार करना चाहिए। भाई-बहनों का भी सत्कार करते रहना चाहिए। धन, वस्त्र भोजनादि से सेवा करते हुए समय-समय पर उनका आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए। 


दान करें 

– पितरों के नाम पर अस्पताल, मंदिर, विद्यालय, धर्मशाला, आदि बनवाने से भी लाभ मिलता है। 

– हर मौसम में जो भी नई सब्जी और फल हो उसे पहले अपने पितरों और कुल देवताओं के नाम मंदिर में दान दीजिये। अपने पूर्वजों के नाम पर जल की व्यवस्था करनी चाहिए।

– किसी गरीब कन्या का विवाह या उसकी बीमारी में सहायता करने पर भी लाभ मिलता है। 

– ब्राह्मणों को गोदान, कुएं खुदवाना, पीपल और बरगद के पेड़ लगवाना, विष्णु भगवान के मंत्र जाप, श्रीमदभागवत गीता का पाठ करना, 

– किसी धार्मिक स्थल पर आम और पीपल का वृक्ष लगवा दे।

– हिजड़ों को साल में कम से कम एक बार नये वस्त्र, फल, मिठाई, सुगन्धित सौंदर्य प्रसाधन सामग्री एवं दक्षिणा आदि का सामथ्र्यानुसार दान करें।

– परिवार में होने वाले प्रत्येक शुभ एवं धार्मिक, मांगलिक आयोजनों में पूर्वजों को याद करें तथा क्षमतानुसार भोजन, वस्त्र आदि का दान करें।  

दिन के हिसाब से 


– सोमवार के दिन 21 पुष्प आक के लें, कच्ची लस्सी, बिल्व पत्र के साथ शिवजी की पूजा करें. ऐसा करने से पितृ दोष का प्रभाव कम होता है। 

–  पंचमी तिथि को सर्पसूक्त पाठ, पूर्णमासी के दिन श्रीनारायण कवच का पाठ करना चाहिए। इसके बाद ब्राह्मणों को सामथ्र्य के अनुसार मिठाई और दक्षिणा सहित भोजन कराना चाहिए। इससे भी पितृ दोष में कमी आती है। 

–  प्रतिदिन इष्ट देवता व कुल देवता की पूजा करने से भी पितृ दोष का शमन होता है।  

– कौओं और मछलियों को चावल और घी मिलाकर बनाये गये लड्डू हर शनिवार को दीजिये। 

– एकादशी व्रत तथा उद्यापन करें। पितरों के नाम से मंदिर, धर्मस्थल, विद्यालय, धर्मशाला, चिकित्सालय तथा नि:शुल्क सेवा संस्थान आदि बनायें।

– सूर्य एवं चंद्र ग्रहण के समय/ दिन सात प्रकार के अनाज से तुला दान करें।  

–  यदि दांपत्य जीवन में बाधा आ रही है तो अपने जीवन साथी के साथ लगातार 7 शुक्रवार किसी भी देवी के मंदिर में सात परिक्रमा लगाकर पान के पत्ते पर मिश्री और मक्खन का प्रसाद रखें। साथ ही पति एवं पत्नी दोनों ही अलग-अलग सफेद फूलों की माला चढ़ायें तथा सफेद पुष्प चरणों में चढ़ायें। अष्ट मुखी रुद्राक्ष धारण करें।

– पानी वाला नारियल हर शनिवार प्रात: या सायं बहते जल में प्रवाहित करें।

 
 अमावस्या के दिन खास उपाय 

– प्रत्येक अमावस्या के दिन अपने पितरों का ध्यान करते हुए पीपल के पेड़ पर कच्ची लस्सी, थोड़ा गंगाजल, काले तिल, चीनी, चावल, जल और पुष्प अर्पित करें। ‘ऊँ  पितृभ्य: नम:’ मंत्र का जाप करें । उसके बाद पितृ सूक्त का पाठ करना शुभ फल प्रदान करता है। 

– प्रत्येक अमावस्या को दक्षिणाभिमुख होकर दिवंगत पितरों के लिए पितृ तर्पण करना चाहिए। पितृ स्तोत्र या पितृ सूक्त का पाठ करना चाहिए। त्रयोदशी को नीलकंठ स्तोत्र का पाठ करना,- प्रत्येक संक्रांति, अमावस्या और रविवार के दिन सूर्यदेव को ताम्र बर्तन में लाल चंदन, गंगाजल और शुद्ध जल मिलाकर बीज मंत्र पढ़ते हुए तीन बार अध्र्य दें। 

-जिस रविवार को संक्रांति या अमावस्या पड़ रही है, उस दिन ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। लाल वस्तुओं का दान करना चाहिए। उन्हें यथा संभव दक्षिणा भी देनी चाहिए। 

– हर अमावस्या को मंदिर में सूखी रसोई और दूध का दान कीजिये।

– हर अमावस्या को गाय को हरा चारा डलवायें।

– अमावस्या को विभिन्न वस्तुओं जैसे – सफेद वस्त्र, मूली, रेवड़ी, दही व दक्षिणा आदि का दान करें। प्रत्येक अमावस्या को श्री सत्यनारायण भगवान की कथा करायें और श्रवण करें। विष्णु मंत्रों का जाप करें तथा श्रीमद् भागवत गीता का पाठ करें। विशेषकर ये श्राद्ध पक्ष में करायें।

 
सोमवती अमावस्या के दिन विशेष उपाय
– पितृदोष को दूर करने का एक बढ़िया उपाय यहां आपको बताया जा रहा है। यह एक बार की ही पूजा है और यह पूजा किसी भी प्रकार के पितृदोष को दूर करती है।  जो अमावस्या सोमवार को पड़ती है, उसे सोमवती अमावस्या कहते हैं। इस दिन पीपल के पेड़ के पास जाइए। उस पेड़ को एक जनेऊ  दीजिए और एक जनेऊ भगवान विष्णु के नाम का उसी पीपल को दीजिये। पीपल के पेड़ की और भगवान विष्णु की प्रार्थना कीजिये और एक सौ आठ परिक्रमा उस पीपल के पेड़ की दीजिए। परिक्रमा के बाद एक मिठाई जो भी आपके स्वच्छ रूप से हो, पीपल को अर्पित कीजिए। परिक्रमा करते वक्त ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’  मंत्र का जाप करते  जाइए। परिक्रमा पूरी करने के बाद फिर से पीपल के पेड़ और भगवान विष्णु से प्रार्थना कीजिये और जो भी जाने अनजाने में अपराध हुए हैं, उनके लिए क्षमा मांगिए। सोमवती अमावस्या की पूजा से बहुत जल्दी ही उत्तम फलों की प्राप्ति होने लगती है। 

* इस दिन अपने आसपास के वृक्ष पर बैठे कौओं और जलाशयों की मछलियों को (चावल और घी मिलाकर बनाए गए) लड्डू दीजिए। यह पितृ दोष दूर करने का उत्तम उपाय है।

* सोमवती अमावस्या के दिन दूध से बनी खीर दक्षिण दिशा में (पितृ की फोटो के सम्मुख) कंडे की धूनी लगाकर पितृ को अर्पित करने से भी पितृ दोष में कमी आती है।

* सोमवती अमावस्या को एक ब्राह्मण को भोजन एवं दक्षिणा (वस्त्र) दान करने से पितृ दोष कम होता है।

शनैश्चरी अमावस्या पर उपाय  

अमावस्या यदि शनिवार के दिन पड़े तो इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। शनि देव को अमावस्या अधिक प्रिय है। उनकी कृपा का पात्र बनने के लिए ‘शनिश्चरी अमावस्या’ को सभी को विधिवत आराधना करनी चाहिए। ‘भविष्यपुराण’ के अनुसार ‘शनिश्चरी अमावस्या’ शनि देव को अधिक प्रिय रहती है। ‘शनैश्चरी अमावस्या’ के दिन पितरों का श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। जिन व्यक्तियों की कुण्डली में पितृदोष या जो भी कोई पितृ दोष की पीड़ा को भोग रहे होते हैं, उन्हें इस दिन दान इत्यादि विशेष कर्म करने चाहिए। यदि पितरों का प्रकोप न हो तो भी इस दिन किया गया श्राद्ध आने वाले समय में मनुष्य को हर क्षेत्र में सफलता प्रदान करता है, क्योंकि शनि देव की अनुकंपा से पितरों का उद्धार बड़ी सहजता से हो जाता है।

श्राद्ध पक्ष के विशेष उपाय 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार श्राद्ध पक्ष की 16 तिथियों में प्रत्येक तिथि को पितर सूर्योदय से सूर्यास्त तक अपने पुत्र-पुत्रों के प्रति आशान्वित होकर आते हैं और उनसे श्रद्धापूर्वक दिए दान की अपेक्षा रखते हैं। पदम् पुराण, बृहत्पराशर स्मृति, विष्णु पुराण, गरुड़ पुराण, मत्स्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों के अनुसार मृत प्राणी का श्राद्ध उसकी मृत्यु-तिथि के दिन करना ही श्रेष्ठ है, जिससे मृतात्मा को तृप्ति मिलती है। इसलिए अपने पूर्वजों का श्राद्ध उनके (स्वर्गवास) की तिथि को ही करें। 

कैसे करें श्राद्ध 

श्राद्धकर्ता को चाहिए कि वह श्राद्ध के दिन पांच पत्तों पर अलग-अलग भोजन सामग्री रखकर पंचबलि करें। ये हैं- गौ बलि, श्वान बली, काक बली, देवादि बली तथा पिपिलिकादि बली (चींटियों को)। इसके बाद अग्नि में भोजन सामग्री तथा सूखे आंवले एवं मुनक्का का भोग लगाएं। फिर ब्राह्मण को साम्थ्र्यानुसार संखया में भोजन करायें। श्राद्ध केवल अपराह्न काल में ही करें, पूर्वाह्न तथा रात्रि में नहीं। कुछ लोग श्राद्ध करने की बजाय मजबूरों को भोजन करवाना अधिक उचित समझते हैं। उनका तर्क होता है कि ब्राह्मणों की बजाय ये लोग ज्यादा आशीर्वाद देंगे।  यह बात सही है कि किसी भी भूखे को भोजन करवाएंगे तो वह आशीर्वाद देगा ही।  तो आशीर्वाद के लिए जरुर भोजन करवाएं।  लेकिन श्राद्ध कर्म तो एक ब्राह्मण ही कर सकता है और तभी पूर्वजों का आशीर्वाद भी मिलेगा।  यह श्राद्ध करने वाले को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह सुपात्र को ही आमंत्रित करे।  मंदिर का पुजारी हो तो अधिक  उचित रहेगा नहीं तो कोई भी कर्मकांडी या जनेउ धारी ब्राह्मण होना चाहिए।  

– पितरों की शांति के लिए नियमित श्राद्ध अवश्य करें। श्राद्ध के दिनों में गाय को चारा खिलाना खिलाएं। कौओं, कुत्तों और भूखों को खाना खिलाना चाहिए। श्राद्ध के दिनों में मांसाहारी भोजन नहीं करना चाहिए।  

– श्राद्ध-पक्ष में गंगाजी के किनारे पितरों की शांति और  हवन-यज्ञ कराएं। पिंडदान करें। ‘गया’ जाकर पिंडदान करवाने से पितरों को तुरंत शांति मिलती हैं। जो पुत्र ‘गया’ में जाकर पिंडदान करता हैं, उसी पुत्र से पिता अपने को पुत्रवान समझता हैं और गया में पिंड देकर पुत्र पितृण से मुक्त हो जाता है। 

– सर्वश्राप व पितृ दोष मुक्ति के लिये नारायण बली का पाठ, यज्ञ तथा नागबली करायें। पवित्र तीर्थ स्थानों में पिंडदान करें। 

– श्राद्ध पक्ष में पितृ मोक्ष अमावस्या के दिन योग्य विद्वान ब्राह्मण से पितृदोष शांति कराएं। इस दिन व्रत/उपवास करें और ब्राह्मण को भोजन करायें। घर में हवन, यज्ञ आदि भी करायें। पितरों के लिए जल तर्पण करें।

– श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों की पुण्यतिथि अनुसार ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र, फल, वस्तु आदि दक्षिणा सहित दान करें।  

–  श्राद्धपक्ष में पीपल वृक्ष की गंध, अक्षत, तिल व फूल चढ़ाकर पूजा करें। दूध या दूध मिला जल चढ़ाकर पीपल के नीचे एक गोघृत यानी गाय के घी का दीप जलाएं। दूध से बनी खीर का भोग लगाएं।

–  पुत्र द्वारा किए जाने वाले श्राद्ध कर्म से जीवात्मा को पुत नामक नरक से मुक्ति मिलती है।

भगवान शिव की विशेष पूजा 

– शिवलिंग पर प्रतिदिन दूध चढ़ायें। बिल्वपत्र सहित पंचोपचार पूजा करे। ”ऊँ नम: शिवाय” या महामृत्युंजय मंत्र का रुद्राक्ष माला से जप करें। भगवान शिव की अधिक से अधिक पूजा करें। 

– वर्ष में एक बार श्रावण माह व इसके सोमवार, महाशिवरात्रि पर रूद्राभिषेक करायें। शत्रु नाश के लिये सोमवारी अमावस्या को सरसों के तेल से रूद्राभिषेक करायें। यदि यह सोमवारी अमावस्या श्रावण माह में आये तो ”सोने पर सुहागा” होगा। 

– शिव उपासना एवं रुद्र सूक्त से अभिमंत्रित जल से स्नान करें।

– घर में पूजा स्थल पर पारद शिवलिंग को चांदी या तांबे के पंचमुखी नाग पर प्राण प्रतिष्ठा द्वारा स्थापित कर प्रतिदिन पूजा करें। 

– प्रत्येक सोमवार को शिव जी का अभिषेक दही से मंत्र – ”ऊँ हर-हर महादेव” जप के साथ करें। प्रत्येक पुष्य नक्षत्र को शिवजी एवं गणेशजी पर दूध एवं जल चढ़ावें। रुद्र का जप एवं अभिषेक करें। भांग व बिल्वपत्र चढ़ायें।

–  गणेशजी को लड्डू का प्रसाद, दूर्वा का लाल पुष्प चढ़ायें। सरस्वती माता को नीले पुष्प चढ़ायें। – महामृत्युंजय मंत्र का संकल्प लेकर सवा लाख मंत्रों का अनुष्ठान करायें।


नाग पंचमी पर विशेष पूजा 

– नागपंचमी का व्रत करें तथा इस दिन सर्पपूजा करायें। नाग प्रतिमा की अंगूठी धारण करें। प्रत्येक माह पंचमी तिथि (शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष की) को चांदी के नाग-नागिन के जोड़े को बांधकर शिवलिंग पर चढ़ायें। 

– कालसर्प योग की शांति यंत्र को प्राण-प्रतिष्ठा द्वारा स्थापित कर प्रतिदिन सरसों के तेल के दीपक के साथ मंत्र – ”ऊँ नवकुल नागाय विद्महे विषदंताय धीमहि तन्नो सर्प प्रचोदयात् – ”की एक रुद्राक्ष माला जप प्रतिदिन करें।

 
पितरों के निमित्त  दूध देने की विधि 

– एक गिलास कच्चे दूध में चीनी मिला कर छान लें। थोड़ा दूध एक कटोरी में डाल कर उसे अपनी हथेली से ढक कर विष्णु भगवान को स्मरण करते हुए कहिए, ‘विष्णु भगवान के लिए।’ 

– गिलास के बचे हुए दूध को भी हथेली से ढकते हुए कहिये , ‘सभी पितरों के लिए। ’ 

– अब कटोरी के दूध को गिलास के दूध में मिला दीजिये। यह दूध पुजारी को पीने को दीजिये। साथ ही श्रद्धा अनुसार दक्षिणा भी दीजिये।

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