मृत्यु लोक में यानी इस नश्वर जगत में सृष्टि चक्र को संचालित करने के लिए भोजन सबसे पहली अनिवार्य और अपरिहार्य शर्त है। प्राणी से लेकर वनस्पति तक सभी, अपने वजूद को कायम रखने के लिए इसी पर निर्भर हैं। इसलिए हमारे शास्त्रों में भोजन के विविध आयामों के संबंध में विस्तृत और विशद विवेचन मिलता है।

आइए हम यह जानने का प्रयास करें कि भोजन के संबंध में शास्त्र-सम्मत कुछ महत्वपूर्ण बातें क्या हैं जिनका हमें दैनिक जीवन-शैली में ध्यान रखना चाहिए।

१. पद्मपुराण, सुश्रुत संहिता, महाभारत और स्कंद पुराण में कहा गया है कि मनुष्य को दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख – इन पांच अंगों को धोकर भोजन करना चाहिए। इससे मनुष्य को दीर्घ जीवन की प्राप्ति होती है – “हस्तपादे मुखे चैव पंचार्द्रो भोजनं चरेत्। पंचार्द्रकस्तु भुंजान: शतं वर्षाणि जीवति।” इसी तरह विष्णु धर्मोत्तर, महाभारत और मनुस्मृति में कहा गया है कि गीले पैर भोजन तो करें लेकिन गीले पर सोए नहीं – “आर्द्रपादस्तु भुंजीत नार्द्रपादस्तु संविशेत्।”

२. महाभारत के शांति और अनुशासन पर्व में कहा गया है कि मनुष्य को प्रातः काल और सायंकाल में ही भोजन करना चाहिए यानी दिन में सिर्फ दो बार भोजन करना चाहिए। ऐसा करने से उसे उपवास करने का फल प्राप्त होता है – “सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं वेदनिर्मितम्। नान्तरा भोजनं दृष्टमुपवासी तथा भवेत्।” इसके अतिरिक्त लघुहारीत स्मृति, संवर्त स्मृति, नरसिंह पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, पद्मपुराण एवं बौधायन धर्मसूत्र में भी इसी तरह की बातों की चर्चा मिलती है।

३. पद्म पुराण में कहा गया है कि मनुष्य के एक बार के भोजन का भाग देवताओं का भाग होता है, दूसरी बार का भोजन मनुष्यों का भाग होता है जबकि तीसरी बार का भोजन प्रेतों और दैत्यों का भाग होता है और चौथी बार का भोजन राक्षसों का भाग होता है – “देवानामेकभुक्तं तु द्विभुक्तं स्यान्नरस्य च। त्रिभुक्तं प्रेतदैत्यस्य चतुर्थं कौणपस्य तु।।”

४. वशिष्ठ स्मृति, सुश्रुत संहिता, बौधायन स्मृति और पद्म पुराण में संध्या समय में भोजन करना निषिद्ध किया गया है यानी किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को संध्याकाल में भोजन नहीं करना चाहिए – “न सन्ध्यायां भुञ्जीत्।”

५. महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है कि गृहस्थ को सबसे पहले देवताओं, ऋषियों, अतिथियों, पितरों और घर के देवताओं का पूजन करने के बाद ही स्वयं भोजन करना चाहिए – “देवानृषीन् मनुष्यांश्च पितृन् गृह्याश्च देवता:। पूजयित्वा तत: पश्चाद् गृहस्थो भोक्तुमर्हति।।”

६. पद्मपुराण, वामन पुराण, विष्णु पुराण, लघु हारीत स्मृति और वसिष्ठ स्मृति में कहा गया है कि भोजन सदा पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुंह करके करना चाहिए – “प्राङ्मुखोदङ्मुखो वापिस।”

७. पद्म पुराण में कहा गया है कि पूर्व की ओर मुख करके खाने से मनुष्य की आयु बढ़ती है, दक्षिण की ओर मुंह करके खाने से प्रेतत्व की प्राप्ति होती है, पश्चिम की ओर मुंह करके खाने से मनुष्य रोगी होता है और उत्तर की ओर मुख करके खाने से व्यक्ति को धन तथा आयु की प्राप्ति होती है –“प्राच्यां नरो लभेदायुर्याम्यां प्रेतत्वमश्नुते। वारुणे च भवेद्रोगी आयुर्वित्तं तथोत्तरे।।”

८. वशिष्ठ स्मृति में कहा गया है कि –“आहारनिर्हारविहारयोगा:सुसंवृता धर्मविदा तु कार्या:।” यानी भोजन सदा एकांत में करना चाहिए। यही बात स्कंद पुराण और शुक्र नीति में भी कही गई है।

९. वाधूल स्मृति, विष्णु पुराण, स्कंद पुराण और पद्म पुराण में कहा गया है कि बिना स्नान किए, बिना जप किए, बिना हवन किए, बिना दान किए और देवता एवं अतिथि आदि को बिना भोजन कराए व्यक्ति को स्वयं भोजन नहीं करना चाहिए। इन ग्रंथों में इस बात की भी चर्चा की गई है कि बालक और वृद्धि से पहले भोजन नहीं करना चाहिए। इनमें संस्कारहीन अन्न को ग्रहण करने का भी निषेध किया गया है।

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