देवशयनी एकादशी आषाढ़ शुक्ल पक्ष में दशमी तिथि के अगले दिन होती है। इस दिन भगवान विष्णु चार महीने के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं इसलिए इसे हरिशयनी एकादशी भी कहा जाता है। इसके बाद भगवान श्रीहरि विष्णु की योग निद्रा कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को पूर्ण होती है। देवशयनी एकादशी से चातुर्मास भी शुरू हो जाता है। इन चार महीनों में कोई शुभ काम नहीं होता है जैसे कि गृह प्रवेश, विवाह, नामकरण और उपनयन संस्कार आदि। हालांकि, इस दौरान पूजा-पाठ, कथा, अनुष्ठान करने से शुभ लाभ प्राप्त होता है। देवशयनी एकादशी से साधु-संत एक जगह वास कर तपस्या करते हैं। मान्यता है कि चातुर्मास में सभी धाम ब्रज में आ जाते हैं इसलिए वहां की यात्रा शुभकारी मानी जाती है। मान्यता है कि देवशयनी एकादशी को व्रत रखने से सभी मनोकामना पूरी होती हैं। इसके अलावा पापों से छुटकारा मिलता है। जीवन में चली रही परेशानी से निजात मिल जाती है। दुर्घटना का योग टल जाता है।

देवशयनी एकादशी से जुड़ी कथा
भगवान कृष्ण द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर को सुनाई गई कथा के अनुसार सतयुग में मांधाता नाम का राजा था। वह अपनी प्रजा का पुत्र की भांति ध्यान रखता था। इससे सारी प्रजा उससे खुश रहती थी। राज्य में सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। इसी बीच तीन साल तक बारिश नहीं हुई। इससे फसलें सूख गईं और अकाल पड़ गया। लोग भूख-प्यास से तड़पने लगे। राज्य में धार्मिक अनुष्ठान भी बंद हो गए। परेशान जनता राजा के दरबार में पहुंची और इस दुख से निजात दिलाने की गुहार लगाने लगी। राजा ने प्रजा की यथासंभव मदद की। इसके बाद वह कुछ सैनिकों के साथ वन में चला गया। वन में घूमते हुए राजा ब्रह्मा जी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचा। राजा ने ऋषि को प्रमाण कर अपने राज्य की स्थिति बताई और राज्य में वर्षा होने का उपाय पूछा ताकि अकाल के संकट से निकला जा सके। इस पर ऋषि ने राजा को कहा है कि आप आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष को पड़ने वाली देवशयनी एकादशी का व्रत करो। आश्रम से लौटकर राजा ने यह व्रत करना शुरू कर दिया। व्रत के प्रभाव से राज्य में जमकर वर्षा हुई और खेत फसलों से लहलाने लगे।

पूजा विधि
देवशयनी को भगवान विष्णु की पूजा होती है। व्रत को करने वाले व्यक्ति को इस दिन सुबह जल्दी उठकर घर और पूजन स्थान की सफाई करनी चाहिए। स्नान करने के बाद वह घर में गंगाजल का छिड़काव करे। अगर संभव होते लूंगी या धोती पहनकर व्रत का संकल्प ले। घर के मंदिर या चौकी पर भगवान विष्णु की सोने, चांदी, तांबे या कांसे की मूर्ति स्थापित करे। भगवान को पीले वस्त्र भेंट करें। गाय के घी का दीया जलाए। भगवान को पीले फल, फूल और मिष्ठान का भोग लगाए। इसके बाद धूप दिखाकर भगवान विष्णु की आरती उतारे। इसके बाद प्रसाद बांटे। वह रात्रि के समय भगवान को नए बिस्तर पर सुला दे।

इस पर ध्यान देना जरूरी

इस दिन साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें। रसोई में खाना बनाते समय लहसुन-प्याज का इस्तेमाल न करें। इनको बाजार से खरीद कर भी न लाएं। पूजा करते वक्त धूले वस्त्रों को पहनें। अगर वस्त्र नए हों तो और बेहतर। काले और नीले वस्त्र न पहनें। व्रत करने वाले को जमीन पर सोना चाहिए। उसे मांस, मदिरा, शहद, मूली और बैगन का सेवन नहीं करना चाहिए।

व्रत के लाभ

यह व्रत सभी व्रतों में श्रेष्ठ माना गया है। इसको करने से सभी पापों से छुटकारा मिलता है। मान्यता है कि जो लोग इस व्रत को नहीं करते हैं, वे नरकगामी होते हैं। जो मनुष्य इस व्रत को विधि-विधान से करते हैं, उनको स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है।

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