१. व्याघ्रपाद स्मृति में कहा गया है – “यज्ञं दानं जपो होमं स्वाध्यायं पितृतर्पणम्। नैकवस्त्रो द्विज: कुर्याद् भोजनं तु सुरार्चनम्।।” अर्थात् एक वस्त्र पहन कर न तो भोजन करना चाहिए, न दान करना चाहिए, न यज्ञ करना चाहिए, न हवन करना चाहिए, न स्वाध्याय करना चाहिए, न पितृ तर्पण करना चाहिए और न ही देवार्चन करना चाहिए।

२. विष्णु स्मृति में कहा गया है – “नाप्रक्षालितं पूर्वधृतं वसनं विभृयात्।” यानी पहने हुए वस्त्र को बिना धोए दोबारा नहीं पहनना चाहिए। आपस्तम्ब धर्मसूत्र में कहा गया है – “प्रोक्ष्य वास उपयोजयेत्।” इसका अर्थ यह हुआ कि वस्त्र के ऊपर जल छिड़ककर ही उसे पहनना चाहिए।

३. गौतम स्मृति, गौतम धर्मसूत्र और विष्णु स्मृति में कहा गया है – “सति विभवे न जीर्णमलवद्वासा: स्यात्।” अर्थात् यदि व्यक्ति के पास धन की कमी नहीं है तो उसे जीर्ण-शीर्ण और मैले वस्त्र नहीं पहनने चाहिए। इसी तरह गोभिलगृह्य सूत्र और महाभारत के अनुशासन पर्व में कहा गया है – ” न चैवार्द्राणि वासांसि नित्यं सेवेत मानव:।” यानी मनुष्य को भींगे वस्त्र कभी नहीं पहनना चाहिए। महाभारत के अनुशासन पर्व में यह भी कहा गया है कि दूसरों के पहने हुए कपड़े नहीं पहनने चाहिए। इसमें इस बात का भी जिक्र है कि सोने के लिए दूसरा वस्त्र होना चाहिए, सड़कों पर घूमने के लिए अलग तथा देव आराधना के लिए अलग वस्त्र होना चाहिए।

४. बौधायन धर्मसूत्र में कहा गया है कि शौच, स्वाध्याय, दान, भोजन तथा आचमन जैसे इन पांच कार्यों के लिए उत्तरीय वस्त्र अवश्य धारण करना चाहिए। उत्तरीय वस्त्र का अर्थ है – कंधे पर रखा जाने वाला वस्त्र जिसका एक सिरा कंधे के एक ओर से होकर सामने से कमर के हिस्से तक जाता है तो दूसरा सिरा पीठ की ओर से होते हुए कंधे के दूसरी ओर से निकलकर सामने की ओर लटका रहता है। आज की प्रचलित भाषा में इसे अंगोछा कह सकते हैं।

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